Wednesday, November 17, 2010

एक दोस्ती 'ढेले' और 'पत्ती' की : नायेदा आपा रचित

# # #

एक था
'ढेला'
एक थी
पत्ती

‘ढेला’ था
अति निष्ठुर,
संवेदनाहीन,
अहंकारी.
‘पत्ती’ थी
डाल से टूटी,
सूखी हुई और
अति झगडालू.
दोनों थे पड़ोसी
नहीं रखते थे
वास्ता एक दूजे से.

हवा का
तेज़ बहाव था उस दिन,
पत्ती झोंकों के संग
बन गयी थी
चकरघिन्नी ,
ऊपर-नीचे,
नीचे-ऊपर,
यहाँ चोट वहां चोट,
पुकारे पत्ती
परेशान
रोती-बिलखती
‘ढेले’ को :
बचाओ! मुझे बचाओ.
ढेले ने फेरा था
मुंह उपेक्षा से
हँसता रहा था
पत्ती की
बद-हाली पे.

रफ़्तार हवा की
हुई थी
कुछ कम,
पत्ती गिरी थी
पास 'ढेले' के
पूछे पत्ती :
क्यों हो इतने
निर्दयी,
मुझे लगती रही थी
चोटें
और
हँसते रहे थे
बेशर्मी से तुम.

'ढेला' कहे:
नहीं मतलब मुझे
किसी से
और
दोस्ती !
पत्ती से ?
नहीं देती शोभा मुझे.

'पत्ती'हुई थी
रुआंसी
लगी थी
कहने:
सब दिन होते नहीं
समान,
'ढेले' क्यों करते तुम
व्यर्थ अभिमान,
'ढेला' 'पत्ती' को
दुत्कारे और डांटे,
अकड़ में हो चूर
लेने लगा था खर्राटे.

बादल गरजे थे
घन-घोर,
चमकी बिजलियाँ
लगी थी होने
बारिश पुरजोर.
धेला सह ना सके
थपेड़े जल के
भय हावी हो उस पर
मिट जाने के
ग़ल जाने के.

चिल्लाये 'ढेला' :
पत्ती मुझे बचाओ !
ढक लो ना मुझ को
खुद से
सह लो ना मेरे लिए
बारिश को,
प्यारी दोस्त मेरी !
मुझे बचालो!

“गलो , मरो….
नहीं मतलब
मुझे
भी.”
बोली थी पत्ती.
'ढेला' रहा था
छटपटाता गलता
होती रही थी
उसकी दुर्गति.

थमी थी बारिश,
'ढेले' ने ली थी
सांस राहत की
लगा था
कहने 'पत्ती' को:
सब दिन होतें नहीं
सामान
कहती हो तुम ठीक,
हम है पड़ोसी
हम है दोस्त,
रहें मिलजुल
बस बात यह
सटीक.

'ढेले' ने बढाया था
हाथ
और 'पत्ती' ने कुबूला था
साथ.
लगे थे दोनों
मिल-जुल रहने
प्यार और
सौहार्द के पहने गहने.

तूफ़ान जब जब
आन घेरता
'ढेला' छुपा लेता 'पत्ती' को
अपने तले,
और
जब भी होती
बारिश
'पत्ती' का प्यार 'ढेले' पर
छतरी बन पले.

हो गये थे
स्वभाव दोनों के
परिवर्तित,
बारिश-तूफ़ान
और
अन्य आफतों से
हो गये थे दोनों
सुरक्षित.

No comments:

Post a Comment