( यह नज़्म आपा ने शिक्षक दिवस पर लिखी थी)
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वंदन माँ का,
जो सर्वोपरि है
सब गुरुओं से,
पढाये हैं जिसने
पाठ जीने के.
खुद से व औरों से
प्रेम करने के....
प्रणाम! गुरुओं को
बदौलत जिनके
मिलती रही है
रोशनी इल्म की,
और
उन अनजाने
गुरुओं को,
जिन्होंने मांगे
बिन मांगे
लुटा दिये हैं
हम पर
ज्ञान के अनमोल मोती ,
जो हमारे खजाने को
बनाते हैं
और भी बुलंद,
महफूज़ खज़ाना जिसे
ना कोई लूट सकता है,
ना चुरा सकता है कोई....
सलाम ! मेरे ‘उस्ताद जी’ को
जिन्होंने सिखाया
हमारी जड़ें है यंही,
हमारे बुजुर्गों कि राख/अस्थियाँ
इसी जमीं में है यहीं……
बात रूह की हो तो
पत्तों को नहीं
देखो जड़ों को,
पत्तों का क्या
झडतें है हर पत्तझड़ में
होतें हैं नए हर बसंत में ....
सलाम उनकी नमाज़ों को
सलाम उनकी अजानों को
सलाम उनके ललाट के ‘टीके’ को
जो किसी भी पुजारीजी के
तिलक से नहीं था
कम बुलंद....
प्रणाम! अंकित के उन
‘पगले उस्तादजी’ को
जो छोड़ कर
कुटुंब अपना
रह गये थे
इस पार,
क्योंकि उन्हें
ना थी मंज़ूर
चन्द महत्वकांक्षी
राजनीतिबाजों की
खिंची हुई लकीरें...
संत-दरवेश उन्ही
उस्तादजी को
जो दिखते थे
मस्जिद में
वक़्त-ए-नमाज़
बुहारते हुए फर्श,
और शिव मंदिर में भी
धोते हुए आँगन,
करते हुए अर्पण
पावन बेल-पत्र
दूध और जल....
जिन्होंने नात-शरीफ
और
भजन थे एक से सुर में गाये
और
फिर शांत हो
चुप हो गये……
आज तक ना जान सकी मैं
यह चिर मौन उनका,
हिन्दू था या मुस्लिम,
या महज़ ज़ज्बा-ए-इंसानियत ?????
पाये-लागूं,
चोटीवाले
बरहमन मास्टरजी को
जिनकी बीवी ‘धर्म-बहन’ थी
पगले उस्तादजी की,
कट्टर पंडित के घर में
‘उस्तादजी’ के लिए
बर्तन अलग थे,
मगर
दिल दोनों के बस
एक और नेक थे....
पगले उस्ताद
‘साले’ थे उनके
और
पंडितजी थे ‘बहनोई’,
लड़ पड़ते थे
गाँव में
हर किसी से
एक दूजे के लिए,
दोनों थे गुरु
एक दुसरे के,
ना जाने घंटो
करते थे चर्चाएँ
क्या क्या,
दोनों ने जीकर खुद
पढाया था हमें सबक
‘सह-अस्तित्व’ का..
प्रणाम उन सब
देशी-विदेशी,
प्रोफेसर्स और टीचर्स को,
जो गुरु कम और
ज्यादा थे
प्रोफेशनल
मगर थे तो गुरु………...
थोडा 'borrowed'
थोडा 'acquired'
ज्ञान मिला था उनसे,
तराशा था जिन्होंने
सोचने समझने की
ताकत हमारी को....
'Reading', 'Listening',
'Assertiveness', Liberal attitude,
'Firmness','Fairness','
Politeness' और ‘Selfishness’
सिखाई थी उन्होंने,
सिखाया था
साँसे लेना
आज की बदलती हवा में
रहना अडिग तूफानों में,
विज्ञान
संकल्पों और विकल्पों का ,
संतुलन
‘Logical Brain’ और
‘Loving Heart’ का ,
और मासूम सा
अधूरापन भी,
जो कायम रखता है
आज भी यह ज़ज्बा कि,
हम है जिज्ञासु विद्यार्थी
और
सीखना है हमें निरंतर ....
और अब :
श्रीकृष्ण वन्दे जगदगुरुवम !
Friday, November 19, 2010
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