Friday, November 12, 2010

गणित उम्र का : कहाँ से है शुरू:नायेदा आपा रचित

(बुद्ध का समझाने का तरीका अनूठा था...."example is better than percept" वाला.....स्थिति सामने ले आते......खुद समझो......उस वक़्त कहने का भी सही अर्थ पहूंचता लोगों के जेहन में.....राजा प्रसेनजित और गौतम बुद्ध की मुलाकात को इस रचना का विषय बनाया है......मात्रा/छंद की भूलों को क्षमा करें...)
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प्रसेनजित सम्राट सुपरिचित बुद्ध-दर्शन को आये थे,
चर्चा करने तथागत से, निज ह्रदय जिज्ञासु लाये थे.

विग्रह ना हो सत्संग में पल भर, भिक्षु सर्व सहमाये थे ,
यद्यपि उत्सुक और उत्कंठित, मन सब के ललचाये थे.

वयोवृद्ध ध्यानी भिक्खु को धम्म कार्य से जाना था,
चारण स्पर्श कर गौतम का, आशीर्वचन ही पाना था.

होने वाला था सूर्यास्त, व्यग्र भिक्खु था जाने को,
हो विवश हुआ उपस्थित, प्रभु अनुमति को पाने को.

राजन ! जाना अति-दूर मुझे है, सन्देश बुद्ध का देने को,
कई माह की मेरी योजना, हूँ हाज़िर हूँ शुभ-स्पंदन लेने को.

भिक्खु पचहतर साल उम्र का,बुद्ध चरण का स्पर्श करे,
भंते ! संबोधन पाकर, उर में हर्ष अभिव्यक्त अतिरेक करे.

बोले गौतम-हे भंते! कितने वर्ष आपकी आयु है,
मात्र चार वर्ष बोला भिक्खु , विस्मित भूप स्नायु है.

आश्चर्य चकित हुआ नृप, क्यों बुद्ध ने इसे स्वीकार किया,
वृद्ध के मिथ्या वचनों का क्यों नहीं कोई प्रतिकार किया.

रुक ना सका भूप उद्विग्न-नहीं लगता चार वर्ष का यह,
गणना पद्धति है अन्य यहाँ, बुध फरमाए सहज ही यह.

बुद्ध के सुवचन:

जब तक मनुज उतरे ना ध्यान में, प्राप्य उसे प्रकाश ना हो,
उम्र देह की है तब तक, चाहे गणित आकाश-विकाश का हो.

अलोक पाकर अंतर का जब, झलक स्वयं की पाता है,
तन्द्रा में तो गयी उम्र, फिर नया जनम वह पाता है.

भिक्खु के साल इकहतर तो अज्ञान निद्रा में बीत गये,
वर्ष सहस्त्र कईओं के तो यूँही तन्द्रा में रीत गये.

इस भिक्खु ने चार वर्ष से, निज प्रतिबिम्ब को दर्शा है,
राजन ! इसीलिए इसने अपनी इस लघु वयस को स्पर्शा है.

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उलझन में था नरेश सौभागी, मुक्ति दाता पास खड़े,
अश्रुपूरित भूपति विभोर, सिद्धार्थ बुद्ध के पांव पड़े.

प्रसेनजित बोला भगवन ! अब तक था यह भ्रम मेरा,
जीवित हूँ रहा हूँ श्वास चलना फिरना बस क्रम मेरा.

आज आपने दर्शायासत्य, मैं भूप नहीं एक मुर्दा हूँ,
अपने ही ‘स्वयं’ के ऊपर मैं, अज्ञान तिमिर का पर्दा हूँ.

बुद्ध सुवचन :

राजन! धन्य हो, जाना तुम ने सत्य यही जीवन का है,
जागरूक हो!शुद्ध बनो तुम, कृत्य यही सुजीवन का है.

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ध्यान ज्ञान पर चल प्रसेनजित, पुन: जन्म को पाता है,
आत्म-लक्ष्य को पाकर नृपति, स्वयं-पति बन जाता है.

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