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ना जाने कब
तोड़ कर
अवधारणाओं की
उबड़ खाबड़ चट्टानों को
निकल आता है
हो कर विमुक्त
उछल कूद कर
कल कल स्वर में गाता
निज सत्व का
पावन झरना
मनाते हुए उत्सव
अनायास घटित
अभूतपूर्व
उपलब्धि का....
ना जाने
क्यों
खोजते हैं हम
उत्तर जराजीर्ण
जिज्ञासा का,
करते हुए
दुश्चिन्तन
बीती कथा
और
भ्रमजनित पिपासा का..
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