Friday, March 26, 2010

औ सफ़र तीरथां जिस्यो ही है.. (राजस्थानी) (हिन्दुस्तानी)

कविता को राजस्थानी भाषा में पहले रचा, फिर उसका अनुवाद हिन्दुस्तानी में किया, यह कविता मेरे प्रिय शायर अनवर मसूद साहब (पाकिस्तान) के एक कलाम से प्रेरित है. राजस्थानी और हिदुस्तानी, दोनों ही वर्सन पेश-ए-खिदमत है.

औ सफ़र तीरथां जिस्यो ही है
.. (राजस्थानी)
# # #

भींता
किसीक
आंकी बांकी,
पलसो इंरो
जिस्यो ही है,
ठावंच
राखण खातर
औ पड़वो
में'ल मालियाँ
जिस्यो ही है....

थां ने म्हान्स्युं,
म्हाने थान्स्यु
घणकरी
उमेदाँ है चोखी,
आपणे
हिन्वेस रो
औ भौ सुखकर
बिचुक आंक
जिस्यो ही है...

बग चाल्या हाँ
मनमौज़ां में
गेलो तो हुवंस
दिखावे है,
रस्तो है
घेर घुमिलो सो,
दोरो पण
सोरो
जिस्यो ही है....

थकेलो
म्हाने के केसी
कांटा तीखा सा
के लेसी,
'में'क' जणा
थारे सागे
औ सफ़र
तीरथां
जिस्यो ही है....

यह सफ़र तीर्थों जैसा ही है....... (हिन्दुस्तानी)
# # #

भितिकाएं है
टेडी मेढी
द्वार इसका
जैसा ही है,
थिर रखने के
क्रम में
यह कुटीर
महलों
जैसा ही है....

तुम को हम से
हम को तुम से
अपेक्षाएं
सुन्दर
बहुतेरी है,
प्रेम
अपने का
संसार
सुखकर,
एक
केंद्र बिंदु
जैसा ही है..........

बढ़ चले हैं
जब मनमौजी हो
आकांक्षा राह
दिखाती है,
मार्ग यह
टेढ़ा-मेढा है,
कठिन है...
सुखद
जैसा ही है....

थकन हमें
कहेगी क्या,
शूल तीक्ष्ण
हमारा
करेंगे क्या,
'महक' जब
साथ तुम्हारे है,
यह सफ़र
तीर्थों
जैसा ही है....

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