Thursday, October 8, 2009

महक बनी अपने मुंह मियां मिठ्ठू......

(कवि कवियत्रियों की कमजोरी होती है, उन्हें दाद याने प्रशंसा से बड़ा निर्मल आनन्द मिलता है....कभी कभी खुद को भी पेम्पर करने का दिल होता है, आज मैं अपनी रचनाओं कि तारीफ में कुछ कहना चाह रही हूँ....आधा सच है, मुआफ कीजियेगा, मगर अंशतः ही सही कुछ सच ज़रूर है......आज अपने घर में अपने मुंह मिया मिठ्ठू बन रही हूँ......वैसे यह बात अविनाश कि क्षणिकाओं के लिए पूर्ण सत्य है.....बस ओपनिंग शब्द को 'मेरी नेनो' हटाकर 'क्षणिका' पढ़े....आप वहां 'दुहे होते हैं' भी पढ़ सकते हैं....)

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मेरी नेनो
होती है
बट वृक्ष के बीज सदृश
राई आकार की
नन्ही नन्ही कविता
अंतर दृष्टि में
बो लेना मित्रों
फलेगी फूलेगी
बड़ वृक्ष बन
छू लेगी वह सविता.......

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