Thursday, May 13, 2010

बेरख्त ग़ज़ल......

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बेरख्त ग़ज़ल उनकी सुने जा रहे थे हम
एहसां हुज़ूर आपके गिने जा रहे थे हम.

विज्दां हमारी का हुआ हस्र इस तरहा
अशआर उनके ही गुनगुना रहे थे हम.

कहतें है कलम पर हुकूमत नहीं चलती
क्यूँ फिर गुलाम उनके हुए जा रहे थे हम.

अच्छा हुआ जो आपने आईना दिखा दिया
तस्वीर एक पुरानी रखे जा रहे थे हम.

फुर्सत में गर आते तो सुनते भी 'महक' को
अपनी ही शोखियों पे मरे जा रहे थे हम.

(बेरख्त=बेतुका/बेमेल, विज्दां=काव्य रसज्ञता, शोखी=मनमौजीपन, जिंदादिली, चंचलता)

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