Monday, May 17, 2010

ऐ इश्क !

ऐ इश्क !
कैसी है यह
फ़ित्रत तेरी
परिपाटी है कि
कुदरत तेरी
एक सिसकता है
दूजा गाता है.

गर्वोन्मत चपल शाखें
हंसती है
फूलों को जमी पे
गिरा कर,
धुनता है भंवर
सर अपना
इतराते हैं
क्यूँ गुलाब
खुद को काँटों में
खिला कर.

उन्मत चकोर
खोता है चेतन्य
मधुर
मिलन की
अनजानी आस में
क्यूँ तरसाता है
खुदगर्ज़ चाँद
बावरा बन
अपने ही
मृदु हास में.

जल जाता है
परवाना थिरकते
रोशन शम्मा पर
वफ़ा की लम्बी
राहों में
क्यूँ कर देती है जुदा
ये डाली
फलों को
होते हैं जो
जकड़े उसकी बाँहों में.

ऐ इश्क !
कैसी है
यह फ़ित्रत तेरी
परिपाटी कि
कुदरत तेरी
एक मिटता है
दूजा मुस्कुराता है.

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