ज़िन्दगी की
अंधियारी
गलियों में
भटकती रही
मैं
तन्हा तन्हा...
सोचों के
अनसुलझे
धागों में
अटकती रही
मैं
लम्हा लम्हा...
मोहब्बत और
नफरत के
दरमियाँ
चटकती
रही मैं
मिनहा मिनहा....
रूह और
जिस्म की
दोनों आँखों को
झटकती
रही मैं
चश्मा चश्मा...
मुन्सिफ
बन बैठा था
कातिल मेरा
ठिठकती
रही मैं
इज्तिमा इज्तिमा...
(इज्तिमा=सम्मलेन/लोगों का जमावड़ा. चश्मा=झरना मिन्हा=घटा हुआ,लम्हा=मोमेंट/पल.)
अंधियारी
गलियों में
भटकती रही
मैं
तन्हा तन्हा...
सोचों के
अनसुलझे
धागों में
अटकती रही
मैं
लम्हा लम्हा...
मोहब्बत और
नफरत के
दरमियाँ
चटकती
रही मैं
मिनहा मिनहा....
रूह और
जिस्म की
दोनों आँखों को
झटकती
रही मैं
चश्मा चश्मा...
मुन्सिफ
बन बैठा था
कातिल मेरा
ठिठकती
रही मैं
इज्तिमा इज्तिमा...
(इज्तिमा=सम्मलेन/लोगों का जमावड़ा. चश्मा=झरना मिन्हा=घटा हुआ,लम्हा=मोमेंट/पल.)
बहुत खूब लिखा है आपने...
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