Sunday, May 30, 2010

कुबुद्धि का फल..

तू बीजता है
एक दाना
उगती है
फलती है
अनगिनत
बालियाँ
भुट्टे और
सिट्टे
होते हैं
जिनमें
असंख्य दाने.

तू बौता है
एक गुठी
उगता है
विशाल वृक्ष
लगते हैं
उस पर
अनगिनत फल.

तू रोपता है
एक कलम
एक पौध
बन जाती है
वह
एक झाड़ी
खिलतें हैं
उस पर
असंख्य फूल.

कितनी
दिलदार है
यह धरती माँ
और
तू है कृत्घन
नहीं मानता
उसका उपकार
गिरा डाले हैं
अनगिनत पेड़
काट कर
वनों को
नदियों के
जल को
कर प्रदूषित
बना दिया है
विष
धुएं से
जहरीली
हो गयी है
मतवाली पवन
बारिश ना जाने
कहाँ थम गयी है
नरक सी
आहात
कर रही है........

यदि तुम ने
नहीं छोड़ी
करनी प्रयावरण से
छेड़छाड़
आग उगलेगी
धरती
नहीं मिलेगी
हवा
लेने को सांस
आयेंगे भूकंप
फैलेगी महामारी
मच जाएगी
तबाही सब जानिब
होगा भोगना
तुझे
अपनी
कुबुद्धि का फल........

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