Wednesday, May 12, 2010

अदीब...

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सिर्फ
साँसे लेने
का
नाम तो
जीना
नहीं,
सोचो
किया है कभी
कोई
अर्थपूर्ण काम
मिली है
जिस से
औरों को
प्रेरणा
सुख़
चैन
आराम...

तुम से तो
अच्छी है
मुर्दा चमड़ी
धौंकनी की,
जो लेकर साँसे
फूंकती है
कोमलता
लोह में,
जो सहता है
चोटें,
बनने
कुश हल की,
चीरने
सीना जमीं का,
बोने को बीज,
लहलहाए
फसलें हरित
जिस से ....

बनने
खुरपी
जो करे
निराई
हटाने
झाड़ झंकाड़
लहलहाते
खेतों से
पनप सके
ताकि
पौधे जो देंगे
सोने सा अन्न....

बनने
फावड़े
करनी,
जो बनायेंगे
घर,
रहेंगे जिसमें
हम और तुम...

बनने
शमशीर
जो हराएगी
दुश्मन को
मैदान-ए-जंग में....

तुम्हारी यह
साँसे
तुम्हारे ये
अलफ़ाज़
जगाये
जहाँ को,
कहलाओगे
तभी तुम
एक जिंदा इन्सां...
एक सच्चे अदीब..

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