दादाजान के एक भाई जिन्हें हम दद्दू कहते बहुत ही रईस ठाकुर साहब थे, बिलकुल 'आला दौला मस्तमौला' स्टाइल, इश्क में नाकामयाब रहे थे ऐसा दबी जुबाँ से माजीसा (अम्मीजान) से सुना था. शराब, सुंदरी और संगीत में रूचि रखने लगे थे. बहुत ही सौन्दर्य-प्रेमी और नेक बन्दे थे...बिलकुल रूहानी तवियत के. हर चीज उम्दा होनी चाहिए, उनका शौक ही नहीं दीवानगी सी थी. बच्चों से बेहद प्यार करते थे. उनकी चर्चा करते हुए पलकें नम हो गयी है.... इज्ज़त के एहसास दिल में महसूस हो रहे हैं, उन्हें याद करते हुए. इन्सानियत उनके लिए धर्म था...बाकी सब सेकेंडरी. लोग उनको एक बिगड़े रईस के रूप में याद करते हैं, मगर मेरे लिए वे 'ईश्वरीय अंश' वाले इंसान थे....मुहब्बत और पाकीज़गी की एक जिन्दा मिसाल..बहुत दयालु और कोमल दिल वाले थे दद्दू. शायरी और मोसिकी के बहुत बड़े शौक़ीन थे...मल्लिका पुखराज की गायकी उन्हें बहुत पसंद थी. उनकी गायी एक ग़ज़ल अक्सर वे ग्रामोफोन पर बजाते थे--"अरे मेगुसारो सवेरे सवेरे" हालाँकि मेरी उर्दू पर पकड़ बहुत कमज़ोर थी और है...इसलिए उस वक़्त ग़ज़ल के मायने नहीं समझ पाती थी, मगर धुन, गाने का अंदाज़ और दिलकश आवाज़ मोहित कर देती थी. आज उसी तर्ज़ पर एक ग़ज़ल कह रही हूँ...आपका स्नेह चाहती हूँ.
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दर पे वो आया सवेरे सवेरे
उजालों को लाया सवेरे सवेरे.
करवटों में बीती रातें हमारी
हमें नींद आई सवेरे सवेरे.
मावस की बातें पुरानी हुई है
रोशनी झिलमिलाई सवेरे सवेरे.
अश्क मेरे देखो थम से गये हैं
हंसी फूट आई सवेरे सवेरे.
हिज्र वस्ल सारे भुला से गये हैं
खुदा याद आया सवेरे सवेरे.
मंदिर में ना वो, काबे में ना है
दिलों को टटोलो सवेरे सवेरे.
जैसे हो तुम वैसा देखो दिगर को
मोहब्बतें लुटाओ सवेरे सवेरे.
Saturday, May 15, 2010
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