Wednesday, May 5, 2010

दर्द को क्या जाने.

सागर खुद में मस्त रहे
बूंद बेचारी पस्त रहे
दरिया को समा लेनेवाला
बूंद के दर्द को क्या जाने.

छलके पैमाना महफ़िल में
साकी के बसता है दिल में
नशा समाये है खुद में
रिंद के दर्द को क्या जाने.

मरघट का रखवाला है
मुर्दों में बसनेवाला है
रोज़ी मय्यत की खानेवाला
जिन्द के दर्द को क्या जाने.

पैगामे मोहब्बत देता है
जागे में सपने लेता है
हर कली को बहकानेवाला
खाविंद के दर्द को क्या जाने.

हर वक़्त गाफिल खुदगर्ज़ी में
दिन रात डूबा मन-मर्ज़ी में
उल्लू कि तरहा जगनेवाला
नींद के दर्द को क्या जाने.

जुरमी हो आँख दिखता है
हर सहर बयां बदलता है
दहशतगर्दी का कारीगर
हिंद के दर्द को क्या जाने.

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