Wednesday, July 29, 2009

हकीक़त....

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झरा था पेड़ से
एक पत्ता
गिर कर पानी में
लगा था तैरने वो ,
कभी इधर
कभी उधर
कभी ऊपर
कभी नीचे
कभी आड़े
कभी तिरछे,
हो गया था
फूल कर कुप्पा..

इतर के बोला था
पेड़ से पत्ता,
"देखो मेरी लियाकत,
देखो हिम्मत मेरी
बन गया हूँ मैं
एक तैराक काबिल ;
कर पा रहा हूँ मैं
मनमानी,
घूम फिर रहा हूँ
आजादी से
जरा देखो ....."

हो गयी थी शाम
हवा
थम सी गयी थी,
और
पानी
ठहर सा गया था ..
कहा था पेड़ ने पत्ते से,
"एक दफा
चले आओ ना
जानिब मेरे."

होकर रुआंसा
पत्ता
लगा था यूँ कहने,
"आऊँ कैसे ?
बात ना रही,
काबू की अब मेरे,
बदकिस्मती यह मेरी
हुआ
परवश भाई मेरे !"

हो गया था
एहसास
पत्ते को
हकीक़त का,
अपनी किस्मत का
या अपनी
ऐंठी फ़ित्रत का......

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