Friday, July 17, 2009

साथ...

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गिर पड़े थे
पत्ते झर झर के
और
वृक्ष
महसूस
कर रहा था
खुद को
सादा सादा
सौंदर्यहीन सा ......

लगा था
बिलखने
वृक्ष,
कहा था
उसने :
निभाई
खूब प्रीत
साथियों !
छोड़ कर मुझ को
हो गए अलग
तुम,
बना गए
असुंदर
मुझ को...

पत्तों ने
किया था
स्पष्ट :
नासमझ !
जब तक
हरे थे हम,
दे रहे थे
शोभा
तुझ को
बन कर श्रंगार;
सूख गए हम ….
गिर गए
बनने हेतु
तुम्हारी खुराक,
पा सको ताकि
तुम
नवजीवन
सौंदर्य से
भरा-पूरा....

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