Friday, August 28, 2009

मुल्ला बना मसीहा.......

मुल्ला इतने सेकुलर कि कभी अपने मज़हब और दूसरों के मज़हब में फर्क नहीं करते क्योंकि सब फिरकों से ऊपर है एक मज़हब जिसे दुनिया का हर इंसान किसी ना किसी शक्ल में अख्तियार करता है, वह है खुदगर्जी उर्फ़ स्वार्थपरता. इस धर्म में मानव अपना उल्लू सीधा करता है.....इस मज़हब का पहला और आखरी उसूल है "हमारा क्या ? हम को क्या ?" किसी भी घटना पर यह उसूल लागू करके इस मज़हब को मानने वाले अपना रास्ता तय करते हैं. मसलन कोई दुखी मजलूम है उसकी मदद करनी है.....ऐसे में बन्दा सवाल उठाएगा हमारा क्या ? याने हमें क्या फायदा होने वाला है ( देवियों और सज्जनों-इह लोक में परलोक में नहीं)-हमारा क्या ? अगर जवाब 'ना' में है तो 'हमको क्या ?' बिलकुल इनेक्सन वाला भाव..खिसक जाना पतली गली से. और अगर लगे कुछ बनेगा...तो पूछिये मत--तब तो भली बनी. जुट जायेंगे मेरे यार वसुधेव कुटुम्बकम का सिद्धांत अपनाते हुए.

विनेश सर ने मुल्ला के चंदे का धंधा चलाने, नंदू पंडत बन जाने का किस्सा आप से अनधिकृत रूप से शेयर किया था, आज मैं आपको बताने जा रही हूँ, मुल्ला का एक और कारनामा. यह स्पेशल खोज है, आपके लिए एक्सक्लूसिव रिपोर्ट. टेलीविजन वालों के हाथ लग जाती तो ना जाने कई मनोरंजन भारती, शम्स ताहिर खान, संजय बरगट्टा, दीपक चोरसिया, निधि कुलपति, सिक्ता देव इत्यादि दिन भर आपका ही नहीं अखिल भारत का साथ निबाहते मगर यह तो सिर्फ आपके लिए हैं.....

नंदू पंडत का रोल मुल्ला के लिए अच्छी खासी ट्रेनिंग का जरिया भी बना. अन्धविश्वासी लोगों का दोहन कैसे किया जाय धर्म के नाम पर मुल्ला ने और अच्छे से जन-समझ लिया. आप तो जानते ही हैं कि साधू सन्यासी, चोर और ठग एक स्थान पर जम कर नहीं रह सकते. मुल्ला को बोरियत होने लगी थी देदासर गाँव से....शायद वहां कुछ करतब भी मुल्ला के ज़ाहिर हो गये थे.....एक दिन आफताब के जलवा होने से पहिले मुल्ला खिसक गये वहां से.......पहुँच गये एक नए गाँव में....वहां देखा कि बड़े शामियाने लगे हुए हैं....माइक पर कभी मौलवी की तक़रीर सुनाई दे रही थी--जैसे कोई किसी को लताड़ रहा हो.....कुछ अन्तराल के बाद कवाल्ली के लटके सुनाई दे रहे थे----'तू ही है..बस तू ही.....मैं तेरा गुलाम मौला......इत्यादि. देखा एक पुरानी सी मजार है, उस पर मेला लगा हुआ है....हरे काले पैरहन में भागम भाग कर रहे हैं मौलवी लोग......मोर पंखियाँ दिखाई दे रही है......लोबान (धूप) की का धुआं एक पाक सी खुशबू चारों जानिब बखेर रहा है. खोंचेवाले, कबाब वाले, शरबत वाले, मिठाई -सैवय्याँ वाले और मुरीदों कि भीड़ बड़ा प्यारा सा मंज़र था. मुल्ला ने सोचा कि मंज़ल आ गयी....कम से कम पड़ाव तो ज़रूर. मुल्ला ने कुछ वक़्त बिताया वहां के हालातों को समझने में और मुल्ला हो गया था वेल कन्वेर्सेंट वहां की हिस्ट्री-ज्योग्राफी, फिजिक्स-मेथ्स-केमिस्ट्री, बायोलोजी भी.
अचानक मजार की जानिब से बड़े मौलवी कि आवाज़ आई, "उस अंधे को मेरे करीब लाओ." नसरुद्दीन को धकेलते हुए, कई जूनियर मौलवी अँधेरी कोटड़ी में घूस गये और निकाल कर ले आये एक फटेहाल अंधे को. अँधा अपने बेतरतीब से हाथों से झाडू लगाने जैसी हरक़त कर रहा था, पत्थरों से लड़खडाता गिरता पड़ता आगे बढ़ रहा था.

अँधा बड़े मौलवी के करीब पहुंचा, उसके कदमों में मुंह के बल गिर पड़ा. उसने अपने ओंठों से मजार की टूटी फूटी सीढियों को चूमा. बड़े मौलवी ने उसके सिर पर हाथ फेरा. अँधा फौरन चंगा हो गया.
उसने घोषणा कि, "लिल्लाह मेरी आँखों कि रोशनी लौट आई. मैं देख सकता हूँ.....मैं देख सकता हूँ."
कंपति हुई आवाज़ में वह चिल्लाने लगा, " ऐ बहाउद्दीन वली मुझे दिखाई देने लगा. देख सकता हूँ मैं...कैसा चमत्कार हुआ है. वाह !"

लोगों की भीड़ उसके पास इकठ्ठा हो गयी. लोग उसे पूछने लगे, "बताओ मैंने किस रंग कि कमीज़ पहनी है ?." भूतपूर्व अँधा कहता, "बैंगनी." कोई पूछता, "मैंने कौन सा हाथ उठाया ?." ' एक्स ' कहता, "बायाँ." हरेक सवाल का हमारा ' एक्स ' बहुत ही सटीक जवाब दे रहा था.
सबको यकीन हो आया कि अँधा ठीक हो गया, उसे दिखने लगा. तभी मौलवियों कि फौज ताम्बे के थाल लिए उस भीड़ में घुस आई और और चिल्ला चिल्ला कर कहने लगे, "ऐ सच्चे मुसलमानों ! तुमने अपनी आँखों से अभी अभी एक करिश्मा देखा है, मस्जिदों कि देखभाल, यतीमखाने के खर्चों के लिए कुछ खैरात दो." सब से पहले एक अमीर ने नोटों का एक बण्डल थाल में डाल दिया, उसके बाद शुरू हो गये दरमियाने तबके के लोग, अफसर, नौकरी पेशा लोग...... खुले हाथों लोगों ने रुपये पैसे थाल में डाले. तीन चार बार थाल बदलने कि मशक्कत मौलवियों को करनी पड़ी....धीरे धीरे खैरात में थोडी सुस्ती आ गयी. एक लंगड़े को कोठारी से बाहिर निकाल कर लाया गया. उसने भी मजार कि सीढियों को चूमा और बैसाखियाँ फैंक दी. लंगड़ा चल रहा था टांगे उठा कर. मौलवी लोग फिर थाल लेकर भीड़ में घुस गये और हांक लगाने लगे, " ऐ मुसलामानों ! तुम ने अभी अभी एक और करिश्मा देखा. दिल खोल कर खैरात करो...अल्लाह के करम तुम्हे हासिल होंगे." मुल्ला नसरुद्दीन हर बात पर अपनी गहरी नज़र राखे हुए था....उसने भी हुंकार लगायी , " ऐ मौलवियों ! तुम इसे करिश्मा कहते हो और मुझ से खैरात मांगते हो....पहली बात तो यह है कि खैरात देने के लिए मेरे पास फूटी कौड़ी तक नहीं है. और दूसरी बात यह है कि मैं खुद एक पहुंचा हुआ फकीर हूँ और इस से भी बढ़ कर करिश्मा मैं दिखा सकता हूँ." मौलवियों ने समवेत स्वर में उद्घोष किया, " तू फकीर है ? ऐ मुसलमानों, इसकी कोई बात मत मानो. इसकी जुबान से शैतान बोल रहा है."
नसरुद्दीन भीड़ कि तरफ मुड़ा. लगा तकरीरी अंदाज़ में बोलने, " ऐ मुसलमानों ! इन मौलवियों को यकीन नहीं है कि मैं करिश्मा दिखा सकता हूँ. मैंने जो कुछ कहा है, उसका सबूत दूंगा. इस छप्पर वाली कोठरी में जो अंधे, लंगडे, बीमार बिस्तर पर गिरे पड़ें हैं, मैं इन सब को बिना हाथ से छुए ठीक कर सकता हूँ. मैं सिर्फ कुछ लफ्ज़ कहूँगा और ये लोग अपनी-अपनी बीमारियों से छुटकारा पा जायेंगे. खुद ही उठ कर इतनी तेजी से भागेंगे कि तेज़ अरबी घोड़े भी इनको नहीं पकड़ पाएंगे."

छप्पर वाली कोठरी की दीवाल पतली और कच्ची थी. जगह जगह से दीवारें चटक रही थी. नसरुद्दीन ने एक ऐसी जगह खोज निकाली थी, जहाँ दीवाल में दरारें कुछ ज्यादा थी. मुल्ला नसरुद्दीन था खूब खाया खेला. उसने अपने कंधे से वहीँ धक्का दिया. थोड़ी सी मिटटी गिर गयी. मिटटी गिरने की थोडी सी सरसराहट हुई, मुल्ला ने फिर एक धक्का दिया..... जरा एक धक्का जोर से वाला. इस बार मिटटी का एक बड़ा सा लौंदा जोरदार आवाज़ के साथ अन्दर जा गिरा, दीवार के उस बड़े छेद से अँधेरे की तरफ से गर्द उड़ती दिखाई दी. मौलवी लोग मुल्ला कि नौटंकी देख रहे थे, मगर कुछ भी बोल नहीं पा रहे थे. नसरुद्दीन कोठरी में सोये घबराए हुए अपाहिजों को चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था, " जलजला आ गया, भागो......भागो......." और उसने दीवाल को एक धक्का और मार दिया. फिर मिटटी भरभराते हुए गिरने लगी.

कोठरी के बाशिंदे बिलकुल ठीक हो गये थे और अपनी जान बचाने भाग रहे थे......'कोठरी का सारा हुजूम' मौलवियों का किया धरा था. किसीको अँधा किसी को लंगड़ा बना कर बैठ दिया था...जरूरत के मुताबिक एक एक को बुला कर चमत्कार दिखाया जा रहा था. यहाँ तो थोक में मुल्ला ने चमत्कार दिखा दिया था. मौलवी भी इम्प्रेस हो कर, अल्लाह के गुण गान कर रहे थे, मुल्ला कि जय-जयकार कर रहे थे. और पब्लिक सचमुच चकित थी कि "जंकी किरपा पंगु गिरी लांघे, अंधे को है देत दिखाई."
मुल्ला छा गया था.....

आगे मौलवियों और मुल्ला में एमिकेबल हो गया था. खैरात से होने वली आमदनी से एक नीयत हिस्सा मुल्ला को मिलने लगा था....मुल्ला एक पहुंचे हुए फकीर के तौर पर मशहूर हो गया था और अपनी प्रोफेशनल प्रक्टिस, याने डोरा-जंतर-ताबीज वगैरह की, वहीँ पर तकिया बना कर जमा चुका था.
आप बाकी बातों की बखूबी कल्पना कर सकते हैं........



No comments:

Post a Comment