Monday, October 18, 2010

'सत'

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बस
खोला ही था
दरवाज़ा,
बिना कुछ पूछे
बिना कुछ कहे
चली आई थी
भीतर वो,
फ़ैल गई थी
कारपेट पर,
फिर
बिछ गई थी
बिस्तर पर,
कपड़े तक
ना उतारने दिये
जालिम ने,
लिपट गई
निगौड़ी
रौं रौं से मेरे...
रात का वक़्त,
सूना घर,
कहा था उस से मैंने
चली जा,
रहना साथ
मर्द पराये के
नहीं है ठीक,
क्या समझेगा
तुम्हारा 'वो' ,
आया था
अचानक
बादल एक,
ढक दिया था
उसने
मुखड़ा चाँद का,
हो गया था
अँधेरा सा,
इस बीच
ना जाने
चली गई थी
कहाँ वो,
बादल बढा था
तनिक सा,
चली आई थी
फिर से
चंचला,
कहा था मैंने
अरी चांदनी !
चली गई थी
कहाँ तू,
कहा था उसने
कहीं तो नहीं...
रहती हूँ
मैं तो
हर पल
संग अपने चाँद के,
अरे भोले मानुष !
अभी भी नहीं
समझे तुम,
अरे मैं तो
रहती हूँ
टटोलती
'सत'
तुम से
मर्दों का...

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