(यह नज़्म 'psychology' विषय पढने के दौरान possessiveness पर की गयी एक केस स्टडी में हासिल हुए फीड-बेक पर ‘बेस्ड' है.)
# # #
तुम से कैसा
नाता है
यह मेरा...
तुम होते हो तो
मिलता है लुत्फ़
सताने में तुझको,
जाते हो
जब तुम दूर थोड़े
आता है मज़ा
गिराने में
नज़रों से तुझको...
लेता है नाम
जब कोई तेरा
थोड़े प्यार-ओ-इसरार से,
लग जाती है
आग जाने क्यूँ
मेरे उजड़े से
दयार में.....
मैं तेरी हूँ या नहीं
भूल जाती हूँ मैं,
तुम सिर्फ मेरे हो,
बस खयाल यही
रहता है
मेरे इख्तिसार में...
जन्म से
खोया ही खोया है
मैंने....
जो भी है पास
उसे जकड़ने की
हो गयी है अब
आदत सी मेरी,
जानते हुए कि
नहीं है मेरा
कुछ भी...
खालीपन
बेबसी
और
जलन
हो गयी है
फ़ित्रत सी मेरी,
सब एहसास मेरे
बस है उपरी,
सोचें मेरी
हो गयी है
बेहद संकड़ी...
मालूम है मुझे कि
देने को तुम्हे
नहीं है कुछ
पास में मेरे,
मेरी हर मुस्कान
रंग-ए-तौहीन
हो गयी है,
कासे कहूँ
यह दुखवा हमार,
मुझको बस
ऐसी ही मोहब्ब्त की
आदत सी हो गयी है....
यही मेरा
बस इक पल का
सुकूं-ओ-तस्कीं है,
जिंदगी मेरी
इक बे-मंजिल का
सफ़र हो गयी है...
घुट रहा है दम तेरा
मेरे आगोश में
लज्ज़त तेरी
शख्सियत-ए-सरफ़रोश में
थम गयी है.....
ईसर की
कई तकरीरें है
पास मेरे
फ़साने वफाओं के भी
बहोत लिखे हैं मैंने,
लफ़्ज़ों का एक
भंवर काफी है
डुबोने तुझ को
मोहब्बत में
मरनेवालों की
कहानियां बहोत
पढ़ी है मैंने....
भाग कर मुझ से
जाएगा कहाँ तू,
मालूम है मुझे
मुझ तक ही
लौट के आएगा तू......
मेरे अन्दर
कराह रहा है कोई,
दर्द भरे नालों से
ये आसमां गुंजार रहा है
आँखों में मेरी खौफ है
जगहा नींद के,
बैचैनी और अकेलापन
मुझ को
बेमौत मार रहा है...
जीना चाहती हूँ जिन्दगानी
मगर
बातें मेरी यारों
बस मौत सी है,
महबूबा हूँ मैं तुम्हारी
ऐ सनम
सोचें मेरी
महज़ एक सौत सी है...
आओ निकालो ना
इन अंधेरों से मुझ को
रोशनी से नहला नहला
कर दो रोशन मुझ को...
मैं भटकी हुई हूँ
अपने ही वीरानों में
ले चल मुझे ए दोस्त !
मोहब्बत के रंगी
मयखानों में,
मुझ से पहली सी
मोहब्बत
मेरे महबूब न मांग,
मांग ले दुआ मेरे खातिर
किन्ही
मस्जिद-ओ-बुतखानों में
(इख्तिसार=gist/सारांश. शख्सियत=
No comments:
Post a Comment