Sunday, October 24, 2010

गिरहें धागे और चदरिया: By अंकित भाई

(इस कविता को सोचने और लिखने के क्रम में में inspire हुआ मैं तीन रचनाओं से जिनका जिक्र आप से करना लाज़मी समझता हूँ. वे है मधुर भाई की रचना 'अनजान' का एक शे'र,रहीमजी का दुहा और गुलज़ार साहिब की नज़्म 'गिरहें'.)

# # #

कहा था
जुलाहे ने
गिरहें
मेरे जोड़े
धागों की
नहीं दिख पाती
कपडे में,
नहीं बता सकता हूँ
तरकीब उसकी,
बाँट सकता हूँ
मगर
तजुर्बा मेरा.....

लेता नहीं
मैं कभी
धागे कच्चे,
होती है
जब भी टूटन
खोता नहीं मैं
आपा अपना,
बंट कर
करता हूँ
एक सा
टूटे हुए
सिरों को
लगाकर
पानी थोड़ा
घुमा फिरा कर
थोड़ा,
लगाता हूँ
फिर गिरह
एक मज़बूत सी,
काट देता हूँ फिर
वो हिस्सा...

जो रह जातें है
बाहर गिरह के,
फिर कर के
गीला
पानी से
सूखा लेता हूँ
तुरंत
और
लगता हूँ बुनने
लगातार फिर से ,
लगा के
ताना बाना
लगन से.....

शागिर्द हूँ मैं
कबीर का
करता नहीं
कोताही,
नहीं करता
जाया मैं
वक़्त बेशकीमती को
सोचने में
बात टूटने की
या
बस देखने
गिरह को...

रहती है
नज़र मेरी
महज बात
इस पर,
अच्छी हो
बुनाई
चदरिया की
और
झोंक देता हूँ
अपना सब कुछ,
बुनने में
उसी को ...

अपनाकर
नजरिया
इमानदार
देखने दिखाने का,
देखा करिए आप
चद्दर पूरी को,
ना कि हिकारती
नज़र से
सिर्फ गिरह को,
बड़ी देन थी जिसकी
जोड़ने में
बिखरे टूटे धागों को...

तानो-बानो की
बुनाई में
होती ना
अगर गाँठ
ना होती
यह चद्दर मनभानी,
आती फिर
क्या काम खड्डी मेरी ...?
क्या लड़ने लड़ाने
बिला वजह
आप और
हम को...

करना
मंज़ूर हमें
वुजूद गिरह का
चद्दर की
खूबसूरती में,
देखना इसी हुस्न
जुड़ जाने में हुए
घटित को,
समझना
अपनी ही तरह*
चदरिया को,
बदल देगा
नज़रें और नजरिया,
देखेंगे आप
बस उसको ही,
ना की गिरह को
और
जोड़ को ,
खयाल रखना
ज्यों की त्यों
धर दी थी
झीनी झीनी चदरिया
एक अनपढ़-ज्ञानी
फकीर ने
गुजरे ज़माने में....

ऐ मेरे शायर दोस्त,
कहा उस सयाने से
जुलाहे ने,
फर्क सिर्फ है
नज़रिए और नज़र का,
नज़ारा है वही,
हकीक़त है वही,
होती है तकलीफ आपको
बीती बातें
भुलाने में
मापा करते हैं
आप तभी
हर शै को,
अपने ही
पैमाने में....


*इन्सान के जिस्म में भी कई गिरहें/गांठे/जोड़ हैं.......और सोचों में भी.
हम क्यों न जुलाहे की बातों को समझें, चदरिया सच में नायाब हो सकती है.

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