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हरी हरी इतराई
दूब ने
किया व्यंग :
अरे ओं लम्पट झरने !
क्या तू है संतान
पवन की,
बहता रहता
कल कल..कल कल
रहे उछलता
पल पल...पल पल,
होता नहीं
स्थिर कभी भी...
मंद मंद
मुस्काया था
वह निर्मल झरना,
प्रेम से बोला :
वाह ! की है
सटीक पहचान
तू ने तो, :)
मैं तो हूँ
बेटा पर्वत का,
जो नहीं बदलता
करवट तक भी....
Sunday, October 10, 2010
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