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ढलती रात में
आँखों से नींद का
उड़ जाना,
नज़्म लिखने की कोशिश
और
कलम का ना चलना,
सोचा किया था
क्यों ना दुप्पटे को
बार-बार आँखों तक लाते
समेत लिया जाये
बीते हुए लम्हों को,
गुजर जाये शायद
शब-ए-फुरकत,
कर जाये मुखातिब
उनको
नज़रों के मेरे
यह सूरज सुबह का..
ना आये ना तुम सुबहा
फैलाया आँचल मेरा,
निरखा फिर से उन बीते
हुए नन्हे से प्यारे से
सुनहले पलों को
जो उस दूर बड़े देश के
छोटे शहर में
बिताये थे संग हमने.....
देख रही थी
बर्फ गिरने के वक़्त
बहिर निकल खुद को
सफ़ेद जिन्न बना लेना,
घर के शीशों के पार
धीरे धीरे चलती जिंदगी को देखना,
मेरे सर के ‘splitting’ दर्द से
तेरा घबरा जाना,
होले होले
मेरे सर को दबाना,
छुअन से दर्द का
गायब हो जाना,
गरम काफी के लिए
कड़कडाती ठण्ड में
दूर दूर तक चले जाना...
तुम्हारा बहिर
और
मेरा घर का जिम्मा लेना,
साथ बैठ चाय के प्याले के संग
'सिंगल इनकम' में जीने का
बजट बनाना,
रिश्तेदारों की ‘Din’(डबल इनकम)
पर तकरीरें करना,
बार बार मेरी डिग्रीयों का हवाला देना,
चुपके चुपके हमारी तकदीरों पे जलना,
पीठ पीछे हमारी बेवकूफियों का
मखौल उड़ाना,
मसालों कि खुशबू के संग
मुलुक का 'किचन' में चले आना,
हिंदी-पाक दोस्तों का साँझा हुल्लड़ मचाना,
घर के खाने का विलायती डिशों को हरा देना.
मेहदी हसन, लताजी, रेशमा,नूरजहाँ,जगजीत-चित्रा को
एक ही तहजीब का हिस्सा बताना,
जुदा कहने वालों से तेरे और वाहिद का जोरों झगड़ना,
सपनों में कराची, ढाका और जयपुर को एक संग देखना,
तुम्हे सजदे में झुका और मुझे मंदिर में पूजते देखना.....
फूलों के त्यौहार की उत्तेजना,
या 'Cherry Blossom' का मादक गुलाबीपन,
मोहब्बत,खूबसूरती और दोस्ती की बातें,
नए नए रंगीं नज़ारे देख
मेरा चेह्काना और चिल्लाना,
तुम्हारा शालीनता पर
बेहूदा सा ज्ञान देना,
फिर मेरे संग मुझ सा हो जाना,
बाँहों के वो गरम घेरे,
नज़रों की वो रूहानी ठंडक.
मेरे आंसुओं को पोंछते तेरे नर्म हाथ,
मुझे सहारा देते तुम्हारे शाने,
तेरे इंतज़ार में बैठी मैं,
तुम्हारी बिस्तर ना छोड़ने कि जिद्द,
वो सांझी रोशन हुई दीवालियाँ,
वो सांझे मनाये ईद,
शख्स, घटनाओं और सोचों पार
रुके बिना लम्बा सा विवेचन,
नाना अलंकारों से सम्बन्धियों का
चर्चन,रंगन और अर्चन....
सुहाने अपनायत भरे छोटे
शहर को छोड़ने का ग़म,
बड़े शहर में ऊँचे उठने
और
खुद को साबित करने का दम,
हडसन दरिया के किनारेटहलना,
बैठ कर वहीँ भाजी परांठे खाना,
'Brooklyn heights' का वो पहला घर,
धीमीं चालों के आदी को
न्यूयोर्क की तेज़ी का डर,
वही तबस्सुम वोहि हंसी तुम्हारी,
खिलती संजीदगी में डूबी
रुखसार कि 'dimples' तुम्हारी....
यह छोटे छोटे अनगिनत लम्हे
मानो लाल-ओ-गुहर अपनी जिंदगी के,
लगता है जैसे नात शरीफ हो
आपनी भाव भरी बंदगी के...
Wednesday, October 27, 2010
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