दूर मुल्कों
का किया है
सफ़र मैंने
बेपरवाह हो
जानिब
खर्च के
वक़्त के
ताक़त के
दौलत के........
देखें है मैंने
पहाड़
समंदर
इमारतें
बाग-ओ-बगीचे
अनगिनत
अजूबे.......
न जाने क्यूँ
देख ना पाई
मैं
एक कतरा
शबनम का
जो मुस्कुरा रहा है
सहन में
उगी
घनी हरी घास पर.........
क्यूँ देख ना पाई
आँखें मेरी
वो मासूम
तवस्सुम
जो महक उठी है
पड़ोस के
नन्हे बच्चे के
होठों पर,
पा कर
अचानक
एक टुकड़ा
मिठाई का
छोटा सा......
Saturday, April 10, 2010
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