Sunday, March 7, 2010

जमा हुआ एक ख्वाब.....

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जमे हुए
एक ख़्वाब हो
तुम...
ना खुद पिघलते हो
ना ही मुझे देते हो
पिघलने....
जताते हो हक
मुझ पर...और
देते हो हुक्म,
मैं भी जम जाऊं
तुम्हारी
एकतरफा तस्दीक
की गयी
हकीक़तों में,
जब जब करती हूँ
नामंज़ूर उनको
आगाह करने के
बहाने
छिन लेते हो
मुझ से
हर मकसद
ज़िन्दगी का...

तुम को क्या ?
तुम तो महफूज़ हो
रवायतों और
पाबन्दियों की
जमी हुई
बर्फ के बीच,
जिसमें
रिसता रहता है
वुजूद मेरा
गुज़र कर
उस कंटीली बाड़ से
जिसको
खड़ा किया है तुम ने
मेरे हर जानिब...

जानते हो
तुम भी
लूट लिया है
तुमने
मेरी आवाज़ को
जो हुआ करती थी
कभी
मेरी अपनी.....
समझते हो तुम
बखूबी
हो सकती हूँ
मैं भी
मल्का
अपनी सल्तनत की
जैसे तुम हो
खुद मुख्तार बादशाह
अपने इर्दगिर्द के......
फर्क बस है इतना
हर हरक़त तुम्हारी
करती है मुझे
ज़लील..
होता रहता है
वार मुझ पर
तुम्हारी
फ़र्ज़ और ईमान की
दोधारी तलवार से.....

ना जाने क्यों
हर लम्हे
तुम्हारी नापाक अना
अपनी झूठी जीत पर
लगाती है कहकहे,
और हर सांस तुम्हारी
चिल्लाती है
कहते हुए मुझ को :
"तुम कुछ भी नहीं !"
"तुम कुछ भी नहीं !"
भूल जाते हो तुम
मेरे बिना,
"तुम भी कुछ नहीं !"
"तुम भी कुछ नहीं !"

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