राजस्थान से हमारे कुछ रिश्तेदार हैदराबाद आये हुए हैं. उनमें एक ठाकुर फतह खान साहब हैं और उनके साथ में आये हैं चौधरी कुशला राम जी. दोनों ही धरम भाई बने हुए हैं, याने दोस्त हैं. भाईपे की यह परंपरा पीढियों से चली आ रही है. ब्याह,निकाह,जनम, जनाजा, सभी कामों में दोनों परिवार ऐसे शिरकत करतें हैं मानो एक ही हों. मानो क्या बस एक ही हैं. आज कल रात में गप्पों कि महफिल जमती है, राजस्थान के किस्से, कहावतें, नात, भजन, हंसी मजाक ना जाने क्या क्या बातें होती है, घर के बुजुर्ग हम से ज्यादा रूचि लेते हैं, मगर हमें भी मरुधर के एहसास सुख देते हैं. वहां से आये बुजुर्गवारों के पास तरह तरह के किस्सों और घटनाक्रमों की बातों का अकूत खजाना है......दोनों ही उम्रदराज़ हैं, ज़िन्दगी की रोज़मर्रा की ज़रूरतों से परे.....कुशलाराम जी भी रोजा रख रहे हैं, इस बार ही नहीं बरसों से. ठाकुर साहब भी सुना है महा शिवरात्रि का व्रत रखतें हैं. कल उन्होंने एक गज़ब किस्सा सुनाया जिसे आप से शेयर करना चाहूंगी.
कुछ बातें आपको किस्सा शुरू करने से पहिले बता देती हूँ ताकि आप को किस्से का ज्यादा लुत्फ़ मिल सके. राजस्थान के आम गाँव में हिन्दू, मुस्लिम और जैन बहुत ही प्रेम से रहते हैं. हिन्दुओं में ब्राहमण, राजपूत, जाट, सुनार, माली, बनिए आदि और अनुसूचित जाति के लोग होतें हैं. मुसलमानों में कायमखानी/मोहिल/भाटी/राठौर आदि राजपूत मुस्लिम, छीपा(रंगरेज़), तेली, कसाई, मिरासी/ढाढी /मंगनियार ( musicians), बुनकर, बिसाती आदि होते हैं, कुछ मुल्ला मौलवी याने सयेद/शेख भी. कुल मिलाकर सब लोग आपसी प्रेम में रहते हैं. जो आज़ादी से पहिले बहुत ज्यादा था......भाषा, तौर तरीके काफी कुछ मिलते हैं, थोडा बहुत पोशाक में फर्क होता है मगर सब बातों को सोचा जाय तो लम्बा चौडा फर्क नहीं महसूस होगा. मुसलमानों में मृत्यु के बाद चालीसा सींचा जाता है, याने कब्र कि हर सुबह विजिट करते हैं और जल छिड़कते हैं. जरख एक जंगली जानवर होता है, जो रोही (जंगल) में रहता है, पालतू खाजरू (भेड़ बकरी आदि ) को उठा ले जाता है.
सफी तेली के बाप का इन्तेकाल हो गया. ज़नाजे में सब शामिल हुए. वालिद्सहिब के पार्थिव शरीर को धार्मिक संस्कारों के साथ गाँव के काजी (मौलवी) की हाजिरी में खेतों के बीच बने कब्रस्तान में दफना दिया गया था. सफी रोज़ सबेरे चालीसा सींचने जाता था.चोमासा (बरसात के चार महीने) था. पास ही में नोला राम जाट अपने खेतों में दिन रात काम करता था. एक दिन सफी मियां देखते हैं कि कब्र खुदी पड़ी है, और वालिद साहब कि डेड बोडी नदारद है. नोला राम ने कहा, "मैं धोरे( टीले) पर खडा था, देखा कि एक जरख लाश को उठा कर भागे जा रहा है, मैं दौड़ा भी, मगर जरख हाथ नहीं आया."
सफी मियाँ बात को सहज ले, उस से पहिले ही काजी साहब जो साथ में थे लगे कहने, "चौधरी तौबा तौबा, मरहूम कासिम साहब बहुत ही सच्चे इंसान थे, ईमान वाले, अरे उन्हें तो फ़रिश्ता ले गया है, तुम बकवास करते हो, जरख कहाँ से आएगा यहाँ."
बात अच्छी थी और इज्ज़त बढानेवाली थी सफी मियां के मन को भी भा गयी और काजी साहब ने भी कोई 'future prospects' (भेंट/जगात/खैरात) के अंजाम होने की संभावनाओं को घटना में देख लिया था.
अब चौधरी नोला राम ठहरे स्पष्टवादी, भिड गये, काजी साहब से, लगे कहने, "जरख ही था जी, मैंने अपनी आँखों से देखा है, सफी भाई को ठगने का आपका मंसूबा है काजीजी, कुछ तो भगवान से--- खुदा से डरिये."
मौलवी ने बहुत अच्छे से सफी की ब्रेन वाश कर दी थी इस बीच, सफी भी जोर देकर कहने लगा--" काजीजी ठीक ही कहते हैं, अब्बा मरहूम बहुत ही नेक इंसान थे, फ़रिश्ता उन्हें जन्नत को ले गया."
अब एक ही बात के दो निर्वचन होने लगे, नोला राम और सफी में जिद-बाद होने लगा, काजी दूर रह कर तमाशा देखने लगा. इतने में सेठ घेवर चन्दजी छाजेड (जैन ओसवाल बनिया ) और सेठ किशन लाल जी राठी (हिन्दू बनिया) वहीँ दिशा-मैदान (सुबह का नित्यक्रम) निपटा कर आ गये थे . पूसा ढाढी, इब्राहीम छीपा, नाथू ब्राहमण, नसीबन दादी बिसातन सब जमा हो गये थे . वाकये को सबने सुना. सारे लोग आश्वस्त थे की काजीजी अपना खेल खेल रहे हैं, और आने वाले वक़्त में लगातार आमदनी का जरिया बना ने जा रहे हैं, मगर बोले कौन. भावनातमक बात जो थी. सफी के पिताजी अभी अभी गुज़रे हैं, वह दुखी है. बात बढ़ गयी तो ना जाने कहाँ तलक जायेगी. बात ठंडी हो जाये तब सफी को समझाया जा सकेगा. नसीबन दादी समझदार थी, उसने सोचा कि इस विवाद का खात्मा किसी तरह यहीं कर दिया जाय, फिर अकेले में सफी और उसकी बीवी नुसरत को समझाया जायेगा.
"घेवरजी-किशनजी आप समझदार साहूकार है, सारी कौमें आपको इज्ज़त देती है....आप बताएं कि क्या कहा जाय......कैसे इस बात का निस्तार किया जाय." नसीबन बोली और शायद कुछ इशारा भी किया.
सेठ लोगों ने कहा--- "भाईयों, बैठो, मरहूम कासिम साहब का गुणगान करें, सफी जैसा बेटा कहाँ मिलता है, खूब सेवा कि उसने अपने अब्बा हुज़ूर की. नुसरत भी कितनी अच्छी बहु, कासिम भाई को अपने बाप से बढ़कर मानती थी. मौलवी साहब भी बहुत विद्वान् है. झगड़ा किस बात का. नोला राम भी सही कह रहा है, और काजीजी भी. सुना है तुम ने :
बात बात रो आंतरो, बात बात रो फरक !
थे कहो फरिसतो म्हे कहवां जरख. !!
(बात बात का अंतर होता है, बात बात का फर्क होता है. आप जिसे फ़रिश्ता कहते हैं उसी को हम जरख कहते हैं. ......याने फ़रिश्ता जरख का रूप धरकर आया था.)
चलो भगवान दिवंगत आत्मा को शांति दे. सफी तुम उनके सब काम अच्छे से करो और काजीजी हम लोग आपके घर गेंहू की बोरी, चीनी का कट्टा, घी का गुन्वलिया भिजवा देते हैं. कासिम मियां हमारे दोस्त थे, सफी हमारे बेटे के समान है, इस से कुछ खर्चा ना कराएँ."
काजी भी देखा बहुत कुछ मिल गया, बात बढेगी तो यह भी नहीं मिलेगा, और सफी भड़क गया तो लेने के देने पड़ जायेंगे. बोला, "ऐसा मंजर कभी कभी देखने को मिलता है, हम सब को खामोश रहना है, कब्र को ठीक से बंद कर दिया जाय, किसी ना किसी सूरत में मरहूम कासिम मियां यहाँ सोये हुए है, बस हम सब देख नहीं पा रहे हैं ."
आम सहमति बन गयी थी. सभी असलियत को समझ रहे थे. इस तरह समझदारी से एक बेबुनियाद विवाद का हल निकाला गया था.
कुछ बातें आपको किस्सा शुरू करने से पहिले बता देती हूँ ताकि आप को किस्से का ज्यादा लुत्फ़ मिल सके. राजस्थान के आम गाँव में हिन्दू, मुस्लिम और जैन बहुत ही प्रेम से रहते हैं. हिन्दुओं में ब्राहमण, राजपूत, जाट, सुनार, माली, बनिए आदि और अनुसूचित जाति के लोग होतें हैं. मुसलमानों में कायमखानी/मोहिल/भाटी/राठौर आदि राजपूत मुस्लिम, छीपा(रंगरेज़), तेली, कसाई, मिरासी/ढाढी /मंगनियार ( musicians), बुनकर, बिसाती आदि होते हैं, कुछ मुल्ला मौलवी याने सयेद/शेख भी. कुल मिलाकर सब लोग आपसी प्रेम में रहते हैं. जो आज़ादी से पहिले बहुत ज्यादा था......भाषा, तौर तरीके काफी कुछ मिलते हैं, थोडा बहुत पोशाक में फर्क होता है मगर सब बातों को सोचा जाय तो लम्बा चौडा फर्क नहीं महसूस होगा. मुसलमानों में मृत्यु के बाद चालीसा सींचा जाता है, याने कब्र कि हर सुबह विजिट करते हैं और जल छिड़कते हैं. जरख एक जंगली जानवर होता है, जो रोही (जंगल) में रहता है, पालतू खाजरू (भेड़ बकरी आदि ) को उठा ले जाता है.
सफी तेली के बाप का इन्तेकाल हो गया. ज़नाजे में सब शामिल हुए. वालिद्सहिब के पार्थिव शरीर को धार्मिक संस्कारों के साथ गाँव के काजी (मौलवी) की हाजिरी में खेतों के बीच बने कब्रस्तान में दफना दिया गया था. सफी रोज़ सबेरे चालीसा सींचने जाता था.चोमासा (बरसात के चार महीने) था. पास ही में नोला राम जाट अपने खेतों में दिन रात काम करता था. एक दिन सफी मियां देखते हैं कि कब्र खुदी पड़ी है, और वालिद साहब कि डेड बोडी नदारद है. नोला राम ने कहा, "मैं धोरे( टीले) पर खडा था, देखा कि एक जरख लाश को उठा कर भागे जा रहा है, मैं दौड़ा भी, मगर जरख हाथ नहीं आया."
सफी मियाँ बात को सहज ले, उस से पहिले ही काजी साहब जो साथ में थे लगे कहने, "चौधरी तौबा तौबा, मरहूम कासिम साहब बहुत ही सच्चे इंसान थे, ईमान वाले, अरे उन्हें तो फ़रिश्ता ले गया है, तुम बकवास करते हो, जरख कहाँ से आएगा यहाँ."
बात अच्छी थी और इज्ज़त बढानेवाली थी सफी मियां के मन को भी भा गयी और काजी साहब ने भी कोई 'future prospects' (भेंट/जगात/खैरात) के अंजाम होने की संभावनाओं को घटना में देख लिया था.
अब चौधरी नोला राम ठहरे स्पष्टवादी, भिड गये, काजी साहब से, लगे कहने, "जरख ही था जी, मैंने अपनी आँखों से देखा है, सफी भाई को ठगने का आपका मंसूबा है काजीजी, कुछ तो भगवान से--- खुदा से डरिये."
मौलवी ने बहुत अच्छे से सफी की ब्रेन वाश कर दी थी इस बीच, सफी भी जोर देकर कहने लगा--" काजीजी ठीक ही कहते हैं, अब्बा मरहूम बहुत ही नेक इंसान थे, फ़रिश्ता उन्हें जन्नत को ले गया."
अब एक ही बात के दो निर्वचन होने लगे, नोला राम और सफी में जिद-बाद होने लगा, काजी दूर रह कर तमाशा देखने लगा. इतने में सेठ घेवर चन्दजी छाजेड (जैन ओसवाल बनिया ) और सेठ किशन लाल जी राठी (हिन्दू बनिया) वहीँ दिशा-मैदान (सुबह का नित्यक्रम) निपटा कर आ गये थे . पूसा ढाढी, इब्राहीम छीपा, नाथू ब्राहमण, नसीबन दादी बिसातन सब जमा हो गये थे . वाकये को सबने सुना. सारे लोग आश्वस्त थे की काजीजी अपना खेल खेल रहे हैं, और आने वाले वक़्त में लगातार आमदनी का जरिया बना ने जा रहे हैं, मगर बोले कौन. भावनातमक बात जो थी. सफी के पिताजी अभी अभी गुज़रे हैं, वह दुखी है. बात बढ़ गयी तो ना जाने कहाँ तलक जायेगी. बात ठंडी हो जाये तब सफी को समझाया जा सकेगा. नसीबन दादी समझदार थी, उसने सोचा कि इस विवाद का खात्मा किसी तरह यहीं कर दिया जाय, फिर अकेले में सफी और उसकी बीवी नुसरत को समझाया जायेगा.
"घेवरजी-किशनजी आप समझदार साहूकार है, सारी कौमें आपको इज्ज़त देती है....आप बताएं कि क्या कहा जाय......कैसे इस बात का निस्तार किया जाय." नसीबन बोली और शायद कुछ इशारा भी किया.
सेठ लोगों ने कहा--- "भाईयों, बैठो, मरहूम कासिम साहब का गुणगान करें, सफी जैसा बेटा कहाँ मिलता है, खूब सेवा कि उसने अपने अब्बा हुज़ूर की. नुसरत भी कितनी अच्छी बहु, कासिम भाई को अपने बाप से बढ़कर मानती थी. मौलवी साहब भी बहुत विद्वान् है. झगड़ा किस बात का. नोला राम भी सही कह रहा है, और काजीजी भी. सुना है तुम ने :
बात बात रो आंतरो, बात बात रो फरक !
थे कहो फरिसतो म्हे कहवां जरख. !!
(बात बात का अंतर होता है, बात बात का फर्क होता है. आप जिसे फ़रिश्ता कहते हैं उसी को हम जरख कहते हैं. ......याने फ़रिश्ता जरख का रूप धरकर आया था.)
चलो भगवान दिवंगत आत्मा को शांति दे. सफी तुम उनके सब काम अच्छे से करो और काजीजी हम लोग आपके घर गेंहू की बोरी, चीनी का कट्टा, घी का गुन्वलिया भिजवा देते हैं. कासिम मियां हमारे दोस्त थे, सफी हमारे बेटे के समान है, इस से कुछ खर्चा ना कराएँ."
काजी भी देखा बहुत कुछ मिल गया, बात बढेगी तो यह भी नहीं मिलेगा, और सफी भड़क गया तो लेने के देने पड़ जायेंगे. बोला, "ऐसा मंजर कभी कभी देखने को मिलता है, हम सब को खामोश रहना है, कब्र को ठीक से बंद कर दिया जाय, किसी ना किसी सूरत में मरहूम कासिम मियां यहाँ सोये हुए है, बस हम सब देख नहीं पा रहे हैं ."
आम सहमति बन गयी थी. सभी असलियत को समझ रहे थे. इस तरह समझदारी से एक बेबुनियाद विवाद का हल निकाला गया था.
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