(यह कहानी लेखिका कि कल्पना पर आधारित है, किसी भी जीवित अथवा मृत नर-नारी के जीवन से कुछ घटनाओं का मिलता जुलता होना महज़ संयोग ही समझा जाये.)
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राधिका को आदिवासियों के उत्थान के लिए काम करने के लिए हल ही में राष्ट्रपति पुरुस्कार से नवाजा गया. लगभग हर अख़बार में यह खबर थी, प्रांतीय समाचार पत्रों में तो खबर सुर्खियों में थी. लाल पहाड़ की सूती साडी पहने राधिका अख़बारों और चाय की प्याली का लुत्फ़ साथ साथ ले रही थी. नवरात्रा का पहिला दिन था, देवी माता कि पूजा कर राधिका ने माताजी महाराज का आवाहन किया था....कि वे आयें और उसके साथ पूर्ण नवरात्रा में रहे. पूजा करते समय सुधा भी भांप रही थी कि यह प्रतीक मात्र है किन्तु इसी प्रतीकातमक जुडाव के कारण वर्ष में दो अवसर आते हैं चैत्र और आसोज में जब माता को वह अपने और नज़दीक पाती है. अपनी शक्ति का पुनर्मूल्यांकन पुनराकलन कर पाती है. माँ दुर्गा को वह स्त्री शक्ति का प्रतीक मानती है, और स्वयं की शक्ति को उसके विभिन्न रूपों से पहचानती है. अचानक राधिका सोचों में डूब गयी. विगत कि स्मृतियाँ उसके मानस पटल पर चलचित्र की भांति प्रर्दशित होने लगी.
राधिका का जन्म एक आम मध्यम वित्तीय परिवार में हुआथा. तीन भाई बहनों में वह सब से बड़ी थी, उसके बाद उसकी बहन सुधा और फिर भाई अनुज का आगमन हुआ था. बात आम है मगर कहना ज़रूरी है, राधिका को बहन लाने वाली माना जाता था और माता पिता के बचे खुचे प्यार का कोई टुकड़ा उसे यदा कदा नसीब हो जाता था. हाँ स्थूलकाय गौरवर्ण सुंदरी मां से लगभग लगातार ही कड़वे बोल और नसीहतें उसे सुननी पड़ती थी. शायद दस वर्ष कि उम्र से ही राधिका ने रसोई के , घर गृहस्थी के सारे काम जान लिए थे. स्थितियां ऐसी बनी थी कि खाना पकाना, कपडे धोना, छोटे भाई बहनों को संभालना, बाप का खयाल रखना मानो उसकी मां गौरी की जिम्मेदारी कम और राधिका की ज्यादा होती थी. मां सदा कहती, "अच्छी लड़की बनो...पराये घर जाना है." "अक्ल क्या घास चरणे चली गयी, जो ऐसा किया...वैसा किया.....कब सुधरोगी. कब तुझ में अच्छी लड़कियों के गुण आयेंगे." कभी कोई चूक या कोताही होती तो मां बाप को भड़का कर राधिका को डांट पिलवाती थी, राधिका बस आंसू बहा कर रह जाती थी. मां और उसका समीकरण सगी मां-बेटी का सा कम, सौतेली मां-बेटी जैसा ज्यादा था. कभी कभी तो लगता था उसकी स्तिथि घर में एक नौकरानी से ज्यादा नहीं. राधिका बहुत सुन्दर, शालीन और जहीन लड़की थी. घर के काम को प्राथमिकता देते हुए भी, स्कूल में भी उसकी उपलब्धियां कम नहीं थी, कक्षा में प्रथम आना, गैर-पाठ्यक्रम की गतिविधियों में भी अच्छा प्रदर्शन करना राधिका की खासियत थी.
राधिका कि उम्र चौदह की हो गयी तो उसके एक रिश्तेदार मामा भी उनके साथ आकर रहने लगा, उसकी पत्नी का देहांत हो गया था, और अपनी सारी सम्पति अपनी बहन-जीजा को देकर उसने उस घर में आसरा लेना चाहा था, जो राधिका के माँ-बाप ने ख़ुशी से मंज़ूर कर लिया था.
बाप काम पर चले जाते, मां दोपहर में सत्संग में या सहेलियों से गपियाने आस-पड़ोस में चली जाती, सुधा-अनुज अपने कमरे में खेलने या पढने में व्यस्त होते, अधेड़ मामा ना जाने क्यों राधिका के उभरते अंगों से छेड़-छाड़ करने लगता, बाज़ वक़्त उसे अपने आगोश में ले लेता.....किसी तरह राधिका खुद को उसकी कुत्सित हरक़तों से खुद को बचाती किन्तु भयाक्रांत सी रहने लगी. मां-बाप की आँखों को पट्टी पड़ी हुई थी, उनको शिकायत करना फजूल था, उल्टे उसीको डांट पड़नी थी. ऐसे में पड़ोस में रहने वाला पियूष जो उसका हम-उम्र था हमराज बन गया....पियूष एक अच्छा और मेघावी लड़का था, एक अच्छा इंसान भी. यह मित्रता लगातार बढ़ते बढ़ते प्रेम में परिवर्तित हो गयी.
राधिका भी कॉलेज स्तर तक पहुँच गयी थी, पियूष भी इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला पा चुका था. पियूष ब्राहमण परिवार से था और राधिका के घरवाले गुप्ता बनिए थे. दोनों ही परिवार सब कुछ समझते हुए भी, इस सम्बन्ध को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. कालांतर में एकलौता पुत्र पियूष भी घर वालों के दवाब के सामने कमज़ोर पड़ गया...और उसने राधिका से मुंह मोड़ लिया.
इधर राधिका का ग्रेजुअशन पूरा हुआ, उधर मामा की सहायता से एक सुयोग्य बनिया वर मनीष का चुनाव कर लिया गया. मनीष ने CA पास किया था और प्रैक्टिस करता था. यथोचित दान दहेज़ देकर राधिका को श्रीमती मनीष सिंघल के रूप में विदा कर दिया गया. बनिया और ऊपर से चार्टर्ड एकाउंटेंट, मनीष कि हरेक गणना बहुत सटीक और रुपयों पैसों से जुडी होती. घर का काम सँभालने के अलावा राधिका से उम्मीद की गयी कि वह घर में बच्चों को पढाये ताकि आमदनी बढ़ सके. इस प्रकार राधिका घर कि चार दीवारी और जिम्मेदारियों के घेरे में फंस कर रह गयी. ज़िन्दगी बस किचन और उस से टुइशन पढ़नेवाले बच्चों को सँभालने में ही व्यतीत होने लगी, क्या हुआ कभी कभार कोई शादी-जन्मोत्सव के भोज में अथवा मंदिर के किसी कार्यक्रम में शामिल होने राधिका बहुत ही दबाव और हड़बड़ में कभी कभार बाहर निकल पाती. मां ने पति को परमेश्वर मानने के 'सुसंस्कार' पुत्री को दिए थे, बताया था कि पति के प्रति समर्पित नारी ही सती होती है शक्तिरूपेण, भगवान को भी उसके सामने झुकना होता है. सावित्री सत्यवान जैसी कई कहानियों को बता कर मां ने अपना पॉइंट कूट कूट कर 'प्रूव' किया था और राधिका का 'ब्रेन वाश' किया था. मामा की गन्दी हरक़तों ने, माँ बाप के सौतेले व्यवहार ने और पियूष कि खुदपरस्ती ने राधिका में एक अजीब सी हीन भावना की ग्रंथि पैदा कर दी थी.
मनीष के साथ आकर राधिका ने सोचा था कि एक संस्कारवान पत्नी/गृहणी बने, पति कि आज्ञानुसार आचरण करे और पति की भरपूर सेवा तन-मन-धन से करे, शायद इसी से वह सती नारी बन अपना जीवन सफल कर पाए. दिन भर घर और टुइशन की मेहनत और रात को थके हारे मनीष को बिस्तर में खुश करना राधिका का परम कर्तव्य, स्त्री-धर्म या 'रूटीन' हो गया था. मनीष यदा कदा दोस्तों के साथ पीकर, जश्न मना कर घर लौटता और बिस्तर में उसकी गतिविधियाँ पाशविक हो जाती. प्यार मोहब्बत की बात तो दूर, मनीष तरह तरह के व्यंग बाणों से राधिका को बेंधता रहता. कभी उसके फूहड़ होने की बातें, कभी अव्यवहारिक होने का आरोप, पियूष के साथ उसके काल्पनिक शारीरिक संबंधों की बातें, उसके माता-पिता पर लांछन.....बहुत कुछ हथियार अपनाता था मनीष राधिका पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाये रखने के लिए.....अपना बर्चस्व कायम रखने के लिए.
राधिका बस पिजरे कि चिड़ियाँ बन कर रह गयी. मनीष उन्मुक्त उड़ने वाला पक्षी. दिन भर कि मशक्कत के बाद कहाँ रह पाता चुलबुलापन राधिका कि फ़ित्रत में. वक़्त के साथ मनीष को राधिका से उब सी महसूस होने लगी. उसकी आशनाई एक क्लाइंट के यहाँ काम करने वाली ज्योत्सना अरोड़ा उर्फ़ पिंकी से हो गयी. मनीष के पारिवारिक नियमों के अनुसार बहुएं साड़ी ही पहन सकती थी, ईवन सूट तक पहनना 'allowed ' नहीं, सर पर पल्लू ज़रूरी, सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग सर्वथा वर्जित. ऐसे में कहाँ साडी में लिपटी राधिका और कहाँ लिपि पुती, शानदार हेयर-कट लिए, westerns पहने, हाय-गाय-बाय करती 'खुले' विचारों और आचारों वाली पिंकी अरोड़ा. पिंकी एक छोटे-मोटे संस्थान से 'distance learning scheme ' द्वारा MBA की हुई थी. उसने नौकरी छोड़ दी और मनीष के साथ associate हो गयी.पिंकी के खुले मार्केटिंग स्किल्स ने काम किया, नए नए काम मनीष-पिंकी combine के पास आने लगे. अचानक से मनीष-पिंकी के 'आउट-ऑफ़-स्टेशन' assignments बढ़ने लगे, कभी बैंक ऑडिट, कभी 'टेक-ओवर' के लिए ड्यू डिलिजेंस, कभी प्रोजेक्ट अप्रेजल, कभी कंपनी ला बोर्ड, कभी टैक्स मैटर इत्यादि के नाम......दोनों साथ साथ जाते. मनीष कि शामें भी ज्यादातर पिंकी के साथ गुजरने लगी. काम की बढौतरी ने काम के घंटे भी बढा दिए, छुट्टियों के दिन भी काम होने लगा. यह नयी 'consultancy ' बहुत विकासमान हो रही थी, मनीष की समृधि और शोहरत भी बढ़ते जा रहे थे. उसके व्यक्तित्व में भी एक गुरूर से भरा निखार देखा जा रहा था. राधिका कि स्थिति और बौनी होती जा रही थी. दबी जुबान से पिंकी-मनीष के संबंधों कि चर्चा-कुचर्चा भी होने लगी....मगर कामयाबी सब बातों से ऊपर होती है....धन, सफलता और लोगों की सफल-धनी लोगों से झूठी-सच्ची अपेक्षाएं इन सब बातों को पीछे छोड़ देती है. आधुनिकता और compatibility के नाम बहुत कुछ जस्टिफाई किया जाने लगता है.
मनीष ने नया बड़ा फ्लैट ले लिया था, अच्छे से फर्निश भी कराया था, गृह-प्रवेश पर सब सम्बन्धी भी गाँव से शहर आये थे. समारोह में पिंकी के रंग ऐसे थे मानो नया घर उसका हो. राधिका को बस रिश्तेदारों की देख-रेख की भाग दौड़ करते एक बेचारगी के एहसास के साथ नए घर में देख गया था.
एक दो को छोड़ कर बिना वज़ह अधिकांशतः रिश्तेदार पिंकी के प्रशंसक और राधिका के आलोचक बन गये थे. नए फ्लैट ने राधिका के कामों, जिल्लत और प्रताड़ना में ही बढोतरी की थी, उसका सुकून छिन गया था. काम के बहाने पिंकी का घर आना जाना बढ़ गया था, नए घर का एक कमरा ऑफिस -कम-गेस्ट रूम के रूप में बदल दिया गया था. . इस वातानुकूलित कक्ष में पिंकी-मनीष प्रोजेक्ट का विश्लेषण करते अथवा अपना संश्लेषण करते, करीब करीब अनुमान लगाया जा सकता था. दुखी राधिका का काम होता दोनों की स्नेक्स, सोडा, बर्फ, आदि की ज़रूरतें पूरी करना और गलती बिना गलती मनीष कि झाड़ सुन ना....जब मनीष ज्यादा ही गर्म हो जाता पिंकी राधिका कि छद्म सिफारिश कर उसे चुप करा देती थी.
राधिका एक जीवित नर्क का हिस्सा बन गयी थी. पढ़नेवाले बच्चे, माँ दुर्गा एवम् काली की पूजा घर में लगी तस्वीरें और उसकी निजी डायरी बस उसकी तकलीफों के साथी थे. माता-पिता, भाई बहन ने भी बुरे वक़्त में मुंह मोड़ लिया था, उन्हें भी उस से ज्यादा प्यारा मनीष लगता था. तरह तरह के उपहार देकर, झूठी स्निग्धता दिखा कर पिंकी ने राधिका के नैहर में भी अपनी तूती बजा डाली थी. पियूष ने भी किसी मंत्री महोदय की घमंडी बेटी से विवाह कर अपने ससुर के बल-बूते पर अपना रुतबा बना लिया था.
वह ठेकेदारी लाइन में आ गया था......मंत्रीजी का दामाद जो ठहरा. उसके पिता बृज भूषण शर्मा कक्काजी बन मंत्रीजी के लिए दलाली करने लगे थे. कपटी मामा अब खुले आम बहुत कुछ करने लगे थे घर में भी बाहर भी. रिश्तों, मान्यताओं और सामाजिकता के महलों के खँडहर राधिका के चारों ओर बिखरे पड़े थे.
Sunday, September 20, 2009
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