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समझना तुझे है मैं क्या चाहती हूँ
मुझे पूछते हो मैं क्या चाहती हूँ.
छुए बदन जो खिला दे फिजा को
हवाओं से पूछो मैं क्या चाहती हूँ.
कल कल के नगमे सुनाती जो जाये
नदिया से पूछो मैं क्या चाहती हूँ.
सितारों की महफ़िल सजाती जो दिल से
रातों से तो पूछो मैं क्या चाहती हूँ .
अरमां जगा दे जो तड़फती जमीं में
बारिशों से पूछो मैं क्या चाहती हूँ.
नज़रें बनी है अमानत खुदा की
नजारों से पूछो मैं क्या चाहती हूँ.
दिल में बसे हो तो रहो वहां हर दम
जहाँ को ना पूछो मैं क्या चाहती हूँ.
एहसासे रूह को कहा नहीं जाता
किताबों से ना पूछो मैं क्या चाहती हूँ.
गुलशन में आये हो ठहर जाओ दम भर
'महक' से तो पूछो मैं क्या चाहती हूँ...
Wednesday, May 12, 2010
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