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अजीब
खेल है
इन्सान का भी
न जाने
क्यों
बाँध लेता है
आशाएं
लम्बी-लम्बी
दूसरों से भी
खुद से भी...
जब होती नहीं पूरी
एक नन्ही सी
अपेक्षा
हो जाती है पैदा
खुद-ब-खुद
उसके जीवन में
हताशा...
लगने
लगता है
पूरी जिन्दगानी सा
ज़िन्दगी का एक
छोटा सा
हिस्सा,
डूब कर
घोर निराशा के
अन्धकार में
देने लग जाता है
बिना कोई
गुनाह किये
खुद को ही
सजा
और
गाहे बगाहे
कर बैठता है
तमाम
खुद का ही
किस्सा....
Tuesday, May 25, 2010
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