छुपे हुए हैं
तरु के
रुक्ष
कठोर
तने में
अनगिनत
सुकोमल पत्ते
सुन्दर पुष्प
मधुर फल,
किन्तु
होंगे प्रकट
पाकर निमंत्रण
ऋतु की
समीर का……….
तदनुरूप
शब्दों का
निकाले घूँघट
व्याकुल सी
विराजित है
प्रतीक्षारत
किसी दृष्टिवान के
शुभागमन की ;
शरमाई सी
सकुचाई सी
स्वामिनी
अनन्त अर्थों की,
मेरी
लाजवंती
कविता.....
Sunday, May 30, 2010
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