Saturday, May 22, 2010

उंचाईयों की अन्धी आकांक्षाएं...

भर जाता है
मन
कूट कूट कर
जब पाने
कुछ ऐसी
उंचाईयां
जो लगने
लगती है
उद्देश्य
जीवन की...

तीव्रता
अन्धी
आकांक्षाऑं की
होती है
जितनी
प्रखर,
होता है
उतना ही
तीव्र

विध्वंस
अनुभूतियों का
संवेदनाओं का....

पहना के
वस्त्र
शब्दों के
करते हैं
प्रस्तुत
अपनी
उपलब्धियां,
कोलाहल में
दब जाती है
वे सारी
हिंसा-प्रतिहिंसायें
जो हुई थी
जाने-अनजाने
हम से
इस पाने के
अभियान ,
और पुनः सर
उठा लेती है
आत्म प्रशंसा के
संगान में..

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