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सत्य भी
होता
पांवहीन,
पदचिन्ह
उसके
कहीं नहीं है
बहिरंग में,
भ्रमित
भटक रहा
क्यों
तू प्राणी,
देख उसे
जरा
अन्तरंग में....
(सच और झूठ सापेक्ष होते हैं...मनुष्य अपने मत के अनुसार नाम देकर उन्हें चलाता है...वास्तविक सत्य हमारे अन्तरंग में होता है..जिसे बस अनुभव किया जा सकता है परिभाषित नहीं किया जा सकता..कहा जाता है झूठ के पाँव नहीं होते...हम सत्य के बारे में ऐसा कहने में घबराते...हिचकिचाते हैं...किन्तु कवि के सोचों की उड़ान की कोई कंडिशनिंग नहीं...वह तो उन्मुक्त है..इसलिए सत्य को आज मैंने अपाहिज कह दिया....)
सत्य भी
होता
पांवहीन,
पदचिन्ह
उसके
कहीं नहीं है
बहिरंग में,
भ्रमित
भटक रहा
क्यों
तू प्राणी,
देख उसे
जरा
अन्तरंग में....
(सच और झूठ सापेक्ष होते हैं...मनुष्य अपने मत के अनुसार नाम देकर उन्हें चलाता है...वास्तविक सत्य हमारे अन्तरंग में होता है..जिसे बस अनुभव किया जा सकता है परिभाषित नहीं किया जा सकता..कहा जाता है झूठ के पाँव नहीं होते...हम सत्य के बारे में ऐसा कहने में घबराते...हिचकिचाते हैं...किन्तु कवि के सोचों की उड़ान की कोई कंडिशनिंग नहीं...वह तो उन्मुक्त है..इसलिए सत्य को आज मैंने अपाहिज कह दिया....)
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