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पञ्च सितारा
होटल के
अगवाड़े कि
पिछवाड़े
मरियल से कुत्ते
और
फटेहाल
मैले कुचेले
चिंथड़ों में
खुद को लपेटे
मशगूल थी
कुछ इंसानी शक्लें
अपने पेट की
अगन को
देने आहुति,
चकाचक सूट
नेक टाई
चमचमाते जूतों में
जन कवि गुज़रा था
उसी राह
बटोरने तालियाँ
गरीबी और
भूखमरी को
गाकर...
उसे करनी थी
इतिश्री
बस कह कर
अपने फ़र्ज़ की,
और
सुनकर
हाथों से हाथों को
टकरा
सब कुछ
झटका कर
करनी थी
फ़र्ज़ अदाई
सुननेवालों को..
हिकारत से
देखा था
उसने
और बढा दिये थे
कदम तेज़ी से,
चेहरे पर
घिन्न के
यथार्थवादी
चिन्ह लिए..
कवि सम्मलेन
कहीं और नहीं
हो रहा था
उसी
पञ्च सितारा में
जहाँ बहनी थी
सुरा
चहकनी थी
बुद्धिजीवी
सुंदरियां
और
उघड़ जाने थे
लपलपाते
छद्म शब्दकार,
जिनकी जेहन के
कब्रस्तानों में
दफ़न थी
चंद जिंदा कुंठाएं..
जिन्हें दे रहे थे
हवा
नव धनाढ्य
सरमायेदार..
Saturday, June 5, 2010
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