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बूँद एक
बारिश की
गिरी थी
पर्वत पर,
और लगी थी
फिसलने
और गिरने
डरती सी
सहमती सी
लुढ़कती
लुढ़कती...
आन मिली थी
अपनी सी
चन्द बूंदों से
और
बन गयी थी
सरिता,
बढ़ रही थी
बहते बहते
मिलने
सागर से....
असीम से...
नहीं सोचा था
उसने कभी
ऐसा भी होगा
उसका
यह
अचिंता
मनोरम रूप....
Tuesday, June 8, 2010
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