Thursday, June 17, 2010

तरुवर....

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झुक जाता है तब
फलों से लदा
शज़र
अपनी फ़ित्रत के तहत
देता है छांव
जब वह दरख़्त
मिट जातें हैं भेद
गैरों ओ अपनों के
उसकी कुदरत के तहत...

जपतें हैं प्रभु नाम
दरवेश... उसके तले
छांव में उसके कभी
किसी बुद्ध का
आत्मज्ञान फले
परिंदों ने डाले हैं
उसकी शाखों में डेरे
बच्चों के खिलखिलाते
झुण्ड करतें हैं उसके फेरे...

उसके लिए है ना कोई
गरीब और अमीर
कहा था किसीने जगा कर
अपना जमीर
"तरुवर फल नहीं खात है
नदी ने संचे नीर
परमारथ के करने
साधु ने धरा शरीर...."

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