# # #
कैसा था वो मंज़र सुबहा का...
सैर के बाद
रेबोक और नाईक पहने
चबा चबा कर
अंग्रेज़ी बोलते
या साहित्यिक
हिंदी उर्दू में
बतियाते
रीमलेस ऐनक लगाये
फ्रेंच कट दाढ़ी
मोटी तौंद वाले
चंद विचारवान
जिम्मेदार शहरी
भद्र लोग
कर रहे थे
चर्चा
बाल मजदूरों के
शोषण पर,
गरमागरम थी
चर्चा,
हर कोई अपने
महान विचारों को
कर रहा था पेश.....
एक ने कहा
हमें इन मजलूम बच्चों को
अपने बच्चों की
नज़र से देखना होगा,
दूसरे ने कहा
ये भी इन्सान है
इन्हें भी पढने लिखने और
आगे बढ़ने का हक है.
तीसरा भावुक हो रहा था,
अरे इन्ही में तो
बसते हैं भगवान्,
चौथे को शिकायत थी
सरकार से
जो इन बाल मजदूरों के लिए
कुछ भी नहीं कर रही.
पांचवे को तो हो रही थी
कोफ़्त
अल्लाह ताला से
क्यों पैदा किया
इन्हें गरीब के घर.
एक महाशय
कोर्पोरेट जगत के थे
कंपनी के खाते में
हर महीने
विदेश जाते थे
बताया था उन्होंने,
मग्रिबी मुल्कों में
बात कुछ और है
वहां बच्चों और बूढों की
कद्र यहाँ से 'मोर' है .
देखा इतने में
एक दस वर्ष का मासूम
लगभग इसी उम्र के
मालिक का
बोझिल बस्ता
स्कूल बस तक
ढ़ो रहा था,
सुबहा सुबहा ऐसा ही
एक बालक
मलकानी की थप्पड़ खा
रो रहा था
सन्डे का दिन था
मोर्निंग वाकर्स भी
थे फुर्सत में
टाइम पास का
अच्छा सब्जेक्ट था,
बुद्धि विलास
टाईम पास
मनोरंजन बस प्रोजेक्ट था,
चाईल्ड लेबर से बात
चाईल्ड अब्यूज
बच्चों के यौन शोषण
और
सेक्सुअल पर्वर्सन तक का
सफ़र तय कर चुकी थी
लुत्फ़ से उस
मजलिस की बांछे
खिल चुकी थी.
मिस्टर पोद्दार ने
अच्छी खासी गाली देकर कहा था,
"एय रमुआ, माँ के खसम
देखता नहीं है
साब लोगों को
एक एक सिकोरा
केसरिया चाय
और होना..
ला ज़ल्दी से ला फिर
अपनी बहन के संग सोना.
बारह साल का रामुआ
सोच रहा था,
अगर उसकी माँ का खसम
पोद्दार सा होता
वह भी रामेश पोद्दार
हुआ होता,
झक्कास युनिफोर्म में
ऑर्बिट च्युंगम चबाता
होण्डा सिटी में सवार हो
स्कूल जा रहा होता...
Wednesday, June 23, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment