Friday, June 18, 2010

सत्यम शिवम् सुन्दरम !

(पत्रिका के हर अंक पर मुख पृष्ठ के शीर्ष पर लिखा होता है : सत्यम शिवम् सुन्दरम !)
# # #
कहतें हैं
सत्य
कटु होता
है
कैसे हो
सकता है
कटु किन्तु
सुन्दर...

सुन्दर बनने
हेतु
बनना होगा उसे
शिव
जहाँ कोई
परते नहीं
जो है
प्रत्यक्ष है..
कितने
विरोधाभास
कितने
ऐसे नज़ारे
जो कुछ भी हों
मगर
इस चमड़े की
आँखों वाली
दुनिया की
नज़र में
सुन्दर नहीं
सुन्दर नहीं...

अघोर,
जटाजूट
सिर पे,
रमाये
बभूत
अर्ध नग्न
तन पर,
शिखा से
प्रवाहित
सुशीतल
गंगा,
तीसरे
नयन में
किन्तु
बसी है
ज्वाला,
अगन और
जल
संग संग..
मेरे मौला !
सूरज सा
तेज़
प्रस्फुटित
मुखमंडल से,
चंचल
शीतल
चाँद को
किन्तु
सुसज्जित
जटाओं पे,
तांडव के
नृतक
नटराज
किन्तु
जमाये बैठे हैं
आसान
स्थिर
कैलाश के
बारीक
शिखर पर,
फकीर सी
शख्सियत
मगर
कहलातें है
त्रिलोकीनाथ,
अपना
कुछ भी
नहीं
मगर
महादानी
अत्यंत,
दे दिया
महल
याचक
विष्णु को
हो कर
फिर से
बेघर,
कराते हैं पूजा
अपने लिंग
एवम्
देवी की
योनि की,
तत्पर है
किन्तु
जलाने
हस्ती
कामदेव
मदन की,
पशुपतिनाथ
किन्तु
बांधे
मृगछाल
कमर को,
तुरंग सुन्दर
उपलब्ध
किन्तु
बनाए
सवारी अपनी
सांड
नन्दी को...
कितनी
गिनाएं
खासियतें
भोलेनाथ की,
दुनियां के
मालिक
त्रिकाल पति,
कहलाने वाले
किन्तु
भूतनाथ की...

तो
सत्य को
होने
सुन्दर
स्वीकारनी
होती है
समग्रता
शिव की तरह,
जहाँ है
असंगतियों
और
विरोधाभासों का
सह-अस्तित्व...

यही है
सत्यम
शिवम्
सुन्दरम !

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